पहचान
कबीर जी ने अपने
पुत्र कमाल को गहन चिंतन में डूबा देखा तो उनसे पूछा- “ बेटा क्या बात है तुम इतना व्याकुल क्यों हो, कमाल
ने कहा “ में एक प्रश्न का सही उत्तर नहीं खोज पा रहा”,
कबीर जी ने कहा-“
बेटा मुझे बताओ, शायद मैं तुम्हारी help कर सकूँ”,
तब कमाल ने कहा, “ पिता
जी! एक मनुष्य की पहचान क्या होती है? क्या पहचान का अर्थ किसी का पुत्र होना है
या एक धनी होना है, या ज्ञानी या कुछ और... पर होती क्या है?” क्या पहचान (identification) का किसी नाम और रिश्तों (relationship) का बन्धक होना (mortgage) जरूरी होता है ?
कबीर ने पुत्र कमाल
कि बात सुन कर कुछ नहीं बोले, और अपने पुत्र को लेकर घर से बाहर नगर में निकल पड़े
और राज मार्ग पर चल दिए फिर थोड़ी दूर जाकर मार्ग के बीचों-बीच खड़े हो गये,
उसी समय वहां से बांदोगढ़
राजा कि सवारी निकलने वाली थी,
मार्ग को निर्विघ्न
करने के लिए कुछ soldiers आये, और उन्होंने kabeer aur kamaal को मार्ग में खड़ा देखा
तो वहाँ आये और उनको धक्का दिया और बोले – " बूढ़े! तुझे समझ में नहीं आता कि महाराज
कि सवारी निकल रही है,”
इस पे कबीर हँसे और
बोले- “इसी कारण”,
बाद में सैनिक का
अधिकारी आया और बोला- “मार्ग से हट जाओ, महाराज कि सवारी (the king's ride) आने वाली है”,
कबीर पुनः हंसकर
बोले-“ इसी कारण”,
इसके पश्चात् राजा
के मंत्री आये, वे उनको बचा के अपने घोड़ों को ले गये,
इस पर कबीर फिर
हँसते हुए बोले-“इसी कारण”,
और तब अंत में
बांदोगढ़ के महाराज स्वयं आए, उन्होंने अपनी सवारी रोकी और सवारी से उतरकर महात्मा
कबीर के पाँव छुए फिर चले गए, इस पर कबीर ठहाका लगाकर हँसे और बोले- “ इसी कारण ”,
अब कमाल से रहा न
गया, उन्होंने कबीर जी से “हँसने” और “इसी कारण” बोलने का कारण पूँछा,
इस पर कबीर ने कहा- “
मनुष्य के व्यक्तित्व (personality) व आचरण (behavior) से उसकी पहचान (identification) प्रकट होती है, मनुष्यों में परस्पर
भेद भी इसी कारण से ही होता है, जो लोग अपने आचरण व व्यक्तित्व की निरंतर समीक्षा
करते हुए अपने को विकसित करते है, उनकी पहचान भी स्वतः विकसित (auto developed) हो जाती है और समाज
में वे अपने आचरण व व्यक्तित्व से पहचाने जाते हैं”,
friends ये सच है कि आज-कल हर कोई इस life कि आपा-धापी और मनुष्यों के जंगल में अपनी एक अलग पहचान
बनाने के लिए आकुल-व्याकुल है, हर कोई इसके लिए अपने –अपने तरीकों से कोशिश करता
है, कोई धनवान बनके तो कोई विद्वान बनकर.. हर किसी का प्रयत्न अपनी पहचान समाज में
और अपनों के बीच बनाने में रहता है और इस कोशिश में लगे ये लोग ये भूल जाते है कि उनकी
पहचान अमीरी-गरीबी, विद्वान- अनपढ़, जात-पात से नहीं है और ना ही उनके पास क्या है
क्या नहीं है, पहचान तो उनके अपने वक्तित्व से बनती है कि स्वयं में वे क्या है,
जो लोग खुद को जान कर अपने वक्तित्व को निखारने में प्रयत्नशील रहते है उनकी पहचान
तो स्वतः ही बनती जाती है,
Note: This motivational story based on Kabeer ji, i shared here is not
my original creation, I have read it before and I am just providing it in my
own way in Hindi language.
One Request-Did
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